

ईरान और अमेरिका के बीच परमाणु समझौते को लेकर चल रही तनातनी और बातचीत एक बार फिर वैश्विक सुर्खियों में है। 2015 में हुए संयुक्त व्यापक कार्य योजना (जेसीपीओए) के तहत ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने का वादा किया था, जिसके बदले में उसे आर्थिक प्रतिबंधों से राहत मिली थी। लेकिन 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इस समझौते से अमेरिका को बाहर कर लिया, जिसके बाद से दोनों देशों के बीच संबंधों में तनाव बढ़ता गया। आज, अप्रैल 2025 में, यह मुद्दा फिर से चर्चा में है, क्योंकि ट्रम्प ने दोबारा सत्ता संभालते ही ईरान के साथ नए सिरे से बातचीत की पेशकश की है, साथ ही सैन्य कार्रवाई की धमकी भी दी है।
जेसीपीओए को ईरान और पी5+1 देशों (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और जर्मनी) के बीच 2015 में हस्ताक्षरित किया गया था। इसके तहत ईरान ने अपने यूरेनियम संवर्धन को 3.67% तक सीमित करने, सेंट्रीफ्यूज की संख्या घटाने और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों को अपने परमाणु ठिकानों तक पहुंच देने का वादा किया था। बदले में, संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका ने ईरान पर लगे कई प्रतिबंध हटा दिए थे। यह समझौता मध्य पूर्व में शांति और स्थिरता की दिशा में एक बड़ा कदम माना गया था।
जेसीपीओए का इतिहास और टूटने की वजह
हालांकि, 2018 में ट्रम्प प्रशासन ने इसे “सबसे खराब समझौता” करार देते हुए इससे पीछे हटने का फैसला किया। अमेरिका का तर्क था कि यह समझौता ईरान के बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम और क्षेत्रीय प्रभाव को रोकने में नाकाम रहा। इसके बाद अमेरिका ने ईरान पर फिर से कड़े प्रतिबंध लगा दिए, जिससे ईरान की अर्थव्यवस्था चरमरा गई। जवाब में, ईरान ने 2019 से अपने परमाणु कार्यक्रम पर लगी पाबंदियों को धीरे-धीरे हटाना शुरू कर दिया। वहीं कई लोगों का मानना है ईरान 60% तक यूरेनियम संवर्धन कर चुका है, जो परमाणु हथियार बनाने के लिए जरूरी 90% के करीब है।
वर्तमान स्थिति: बातचीत या टकराव?
अप्रैल 2025 तक, ईरान और अमेरिका के बीच तनाव चरम पर है। ट्रम्प ने हाल ही में ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली खामेनेई को एक पत्र लिखकर बातचीत की पेशकश की, लेकिन साथ ही चेतावनी दी कि अगर ईरान ने समझौता नहीं किया तो “ऐसा हमला होगा, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।” ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेज़ेशकियान ने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा कि अमेरिका के “अधिकतम दबाव” और सैन्य धमकियों के बीच सीधी बातचीत संभव नहीं है। हालांकि, उन्होंने ओमान जैसे तटस्थ देशों के जरिए अप्रत्यक्ष बातचीत का रास्ता खुला रखा है।
अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) की रिपोर्ट के मुताबिक, ईरान के पास अब इतना संवर्धित यूरेनियम है कि वह कई परमाणु बम बना सकता है, हालांकि अभी तक उसने हथियार बनाने की दिशा में कदम नहीं उठाया है। ईरान का दावा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है, लेकिन पश्चिमी देश इसे संदेह की नजर से देखते हैं। इस बीच, अमेरिका और इज़रायल ने साफ कर दिया है कि वे ईरान को परमाणु हथियार हासिल नहीं करने देंगे, जिससे सैन्य टकराव की आशंका बढ़ गई है।
क्षेत्रीय चुनौतियां और प्रभाव
ईरान-अमेरिका परमाणु विवाद का असर सिर्फ इन दो देशों तक सीमित नहीं है। मध्य पूर्व में ईरान के प्रतिद्वंद्वी देश जैसे सऊदी अरब और इज़रायल इस स्थिति को गंभीरता से देख रहे हैं। इज़रायल ने पहले ही ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले की धमकी दी है, जबकि सऊदी अरब ने चेतावनी दी है कि अगर ईरान परमाणु हथियार बनाता है तो वह भी ऐसा करने पर मजबूर होगा। दूसरी ओर, ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों और हिज़बुल्लाह जैसे समूह क्षेत्र में तनाव बढ़ा रहे हैं।
अमेरिका की “अधिकतम दबाव” नीति ने ईरान की अर्थव्यवस्था को तो कमजोर किया है, लेकिन यह उसे बातचीत की मेज पर लाने में नाकाम रही है। ईरान की मुद्रा रियाल का मूल्य गिर गया है, महंगाई बढ़ी है और बेरोजगारी चरम पर है। फिर भी, ईरान के नेतृत्व ने साफ कर दिया है कि वह दबाव में झुकने के बजाय प्रतिरोध का रास्ता चुनेगा।
भविष्य की संभावनाएं
क्या ईरान और अमेरिका के बीच कोई नया समझौता संभव है? विशेषज्ञों का मानना है कि इसके लिए दोनों पक्षों को लचीलापन दिखाना होगा। अमेरिका को प्रतिबंधों में कुछ राहत देनी पड़ सकती है, जबकि ईरान को अपने परमाणु कार्यक्रम को फिर से सीमित करना होगा। यूरोपीय देश जैसे फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन भी इस प्रक्रिया में मध्यस्थता कर सकते हैं। फ्रांस के विदेश मंत्री ने हाल ही में चेतावनी दी है कि अगर जल्द ही कोई समझौता नहीं हुआ तो सैन्य टकराव “लगभग अपरिहार्य” हो जाएगा।
अक्टूबर 2025 में जेसीपीओए से जुड़े संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों की समय सीमा खत्म होने वाली है। अगर तब तक कोई नया समझौता नहीं होता, तो ईरान गैर-प्रसार संधि (एनपीटी) से बाहर निकल सकता है, जिसके गंभीर परिणाम होंगे। दूसरी ओर, ट्रम्प की अप्रत्याशित शैली और ईरान की सख्त रुख एक समझौते की संभावना को जटिल बनाते हैं।